सिद्धि-असिद्धि: किसी भी कर्तव्य-कर्म का निर्विघ्न रूपसे पूर्ण हो जाना सिद्धि है। कार्य में किसी प्रकार का विघ्न, बाधा आने के कारण उसका पूर्ण न होना असिद्धि है। कर्म का मन चाहा फल मिल जाना सिद्धि है और न मिलना असिद्धि है।
कार्यों की सिद्धि-असिद्धी में समता का भाव होने का अर्थ है कि, कार्य पूर्ण हो अथवा न हो, मनुष्य के अन्त:करण में विकार उत्पन्न न हो। सुख-दुःख की अनुभूति न हो।
पूर्व श्लोक (अध्याय २ श्लोक ४७) में भगवान श्रीकृष्ण कर्म और कर्म फल में आसक्ति का पूर्णत्या त्याग करने को कहते है।
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते है कि योग में स्थित होने के लिये आसक्ति का त्याग करना है, कर्तव्य कर्मों का नहीं। भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते है कि कर्तव्य कर्म तो करने है पर उनकी सिद्धि-असिद्धि में समता का भाव रखना है।
कारण कि समता में निरन्तर अटल रहते हुए कर्तव्य कर्म को करना ही योगस्थ होना है। योग में स्थित होना है।
पूर्व श्लोक में कर्तव्य कर्म करते समय किसी भी कर्म में, किसी भी कर्म के फलमें किसी भी देश, काल घटना, परिस्तिथि, और प्राकृत वस्तु में आसक्ति का पूर्णत्या त्याग करने को कहा गया।
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, हे धनंजय आसक्ति का त्याग कर, तुम प्राप्त कर्तव्यों को करो और कर्त्तव्यों की सिद्धि-असिद्धी में समता का भाव रखो।
कारण कि समतामें निरन्तर अटल रहते हुए कर्तव्य कर्म करना ही योगस्थ होना है।
‘समत्व ही योग है”
आसक्ति का त्याग और सिद्धि-असिद्धी में समता का भाव होना। समता में स्थित होना योग है।
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