योग अथवा बुद्धियोग (साधना) में साधक:
मनुष्य की बुद्धि को “मैं हूँ” का जो अनुभव, ज्ञान होता है, वह चेतन तत्व से प्राप्त होता है। इस अनुभव, ज्ञान का प्रकाशक चेतन तत्व है जो बुद्धि से परे है।
यह सत्य है कि ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि से होने वाले कार्यों का ज्ञान बुद्धि को होता है और बुद्धि ही ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ को कार्य करने का निर्देशन करती है। परन्तु कार्यों का ज्ञान और निर्देशन बुद्धि द्वारा तभी सम्भव है जब बुद्धि में चेतना का प्रकाशन चेतन तत्व से हो। अतः बुद्धि को चेतना (“मैं हूँ”) का ज्ञान तो होता है, पर वह ज्ञान कहा से प्राप्त हो रहा है, इसका ज्ञान नहीं होता।
क्योकि संसार के सभी विषयों का ज्ञान और निर्देशन बुद्धि द्वारा होता है, तो बुद्धि अज्ञानता वश चेतना की अनुभूति स्वयं की उत्त्पति मान लेता है।
इस अज्ञानता के कारण मनुष्य (बुद्धि) शरीर (ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि) से होने वाले कार्यों का कर्त्ता स्वयं को मान लेता है। इस कारण, मनुष्य (बुद्धि) “मैं कार्य को करता हूँ” और “मैं कार्य से प्राप्त फल का कारण हूँ” इस प्रकार की अहंता कर लेता है, जो की सत्य नहीं।
सत्य यह है कि प्रकृति-शरीर से होने वाली सभी क्रिया अथवा कार्य का कारण परमात्मतत्व है। कार्य, कर्त्ता और कारण का ठीक-ठीक ज्ञान होना तत्व ज्ञान है और यह ज्ञान अनुभव में आने पर अज्ञानता, अथवा अहंता का नाश हो जाता है। क्योंकि, तत्व ज्ञान को प्राप्त करना बुद्धि का कार्य है, इसलिये “बुद्धि का आश्रय लो” ऐसा इस श्लोक में कहा गया है।
कार्य, कर्त्ता और कारण को लेकर जो तत्व ज्ञान है, उसका का विस्तार और स्पष्टा से वर्णन अध्याय १३ में हुआ है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, जो मनुष्य स्वधर्म का पालन प्रकृति, समाज कल्याण के लिये करने (बुद्धियोग) की अपेक्षा, अपनी कामना पूर्ति के लिये करता है, उसका आचरण अत्यन्त निकृष्ट (निम्न कोटि, तिरस्कृत) हैं।
आगे भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, हे धनंजय! तुम तत्व ज्ञान को प्राप्त करो और स्वयं को कार्यों से प्राप्त होने वाले फल का कारण मत मानो। और स्वयं को फल का कारण मान कर कार्य में प्रवृति अथवा निवृति का भाव मत करो।
जिस कार्य का कारण अथवा कर्त्ता मनुष्य न हो और मनुष्य स्वयं को उस कार्य का कारण अथवा कर्त्ता माने, तो वह बुद्धि की बहुत अधिक मूढ़ता है। ऐसी मूढ़ता अत्यन्त दयनीय स्थिति है और ऐसा मनुष्य कृपा का पात्र है।
मनुष्य स्वधर्म का पालन प्रकृति, और समाज कल्याण के लिये ही करे। स्वयं के लिये केवल जीवन निर्वाह मात्र के लिये हो। मनुष्य स्वयं को प्रकृति में हो रहे कार्यों का कर्त्ता न माने। प्रकृति, पदार्थ, शरीर, कार्य और उसके फल से सम्बन्ध मान कर कार्यों में प्रवृति अथवा निवृति का भाव न करे।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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