भावार्थ:
अध्याय २ श्लोक ५ – अर्जुन कहते है:
प्रतिपक्ष में जितने भी आदरणीय योद्धा है, वह सभी महान आचरण का पालन करने वाले और अनुभवी है। वह सभी मेरे गुरु के सामान है, क्योकि मैने उन सभी से कुछ न कुछ सीखा है।
अध्याय २ श्लोक २ में भगवान श्रीकृष्ण आर्य पद का प्रयोग करते है, जिसका अर्थ अर्जुन, क्षत्रिये के रूप में लेते है। इसी श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि युद्ध न करने से तुम्हे स्वर्ग और कीर्ति की प्राप्ति नहीं होगी। तब अर्जुन इसका तत्पर्य इस प्रकार लेते है:
आर्य को युद्ध के द्वारा राज्य को प्राप्त कर, राज्य का सुख भोगना चाहिये। युद्ध में विजय प्राप्त करने से और राज्य करने से आर्य की कीर्ति होती है।
अर्थ (राज्य) की कामना से, मैं अगर आपकी आज्ञा के अनुरूप युद्ध में इन गुरुजनों की हत्या करूँगा, तो प्राप्त राज्य रक्तरंजित होगा !
रक्तरंजित राज्य को प्राप्त कर जो मैं उसका सुख भोगूँगा, उससे संसार में मेरा अपमान-तिरस्कार होगा, लोग मेरी निन्दा करेंगे।
अपने विचार को और अधिक बल देने के लिये अर्जुन कहते है कि रक्तरंजित राज्य का सुख भोगने से श्रेष्ठ तो भिक्षा का अन्न ग्रहण करना है।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
क्षत्रिये के लिये युद्ध में प्रतिपक्ष योद्धा को मरना क्षत्रिये का कर्तव्य है। परन्तु अपनी कामना पूर्ति के लिए, अथवा द्वेष वश किसी को मरना, हत्या कहलाती है। हत्या करना निषिद्ध कार्य है।
युद्ध में गुरुजनों को मरना, अर्जुन हत्या के सामान देखते है।
कुरुक्षेत्र युद्ध में अर्जुन अत्यन्त ही प्रतिभाशाली योद्धा थे और युद्ध का परिणाम उनके कार्यकौशल पर निर्भर था। परन्तु अंततः पाण्डव सेना में वह केवल एक सैनिक थे। पाण्डव सेना का सेनापति धृष्टद्द्युम्न था और युद्ध युधिष्ठिर की अध्यक्षता में लड़ा जा रहा था। परन्तु अर्जुन के कथन से ऐसा लगता है की युद्ध का नेत्तृत्व अर्जुन ही कर रहे हो। इससे उनमें अहंकार झलकता है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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