भावार्थ:
अध्याय २ श्लोक ५० में, बुद्धियुक्त साधक कौन है, इसका वर्णन हुआ है। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते है कि, बुद्धियुक्त की जो प्रक्रिया है, जिसमें साधक कर्त्ता भाव, अहंता, कामना एवं अन्य विषमता, विकार का त्याग करता है, वह प्रक्रिया जीवन काल में निरन्तर बनी रहनी चाहिये। इसके लिये श्लोक में ‘मनीषिणः’ पद आया है जिसका अर्थ है विचारशील रहना।
अतः जब-जब भी मनुष्य को पदार्थ, परिस्थिति एवं कार्य की प्राप्ति होती है, तब-तब उसको विचार करके विषमता एवं विकार का त्याग करना चाहिये। और इस प्रकार त्याग का विचार और त्याग, निरन्तर बना रहना चाहिये।
भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते है कि, इस प्रकार अन्त:करण निरन्तर निर्विकार रहने से (योग में स्थित रहने से), साधक जन्म से ही प्राप्त संसार बन्धन से, अर्थात सुख-दुःख के चक्र से मुक्त हो जाता है।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
इस श्लोक में “कर्मजन्य फल का त्याग” से अन्तःकरण की सभी विषमताओं एवं विकारों का त्याग कहा गया है।
संसार में जब भी कोई कार्य होता है, तो उसके परिणाम स्वरूप परिस्थिति में परिवर्तन अथवा किसी पदार्थ की प्राप्ति निश्चित है। मनुष्य के लिये यह परिस्थिति अथवा पदार्थ फल रूप तभी होती है, जब मनुष्य शरीर (कर्त्ता), कार्य, या प्राप्त परिस्थिति, पदार्थ से सम्बन्ध जोड़ लेता है।
सकामभावसे किये गये कर्मो के फल का संयोग और वियोग होना निश्चित है। अनुकूल संयोग मे सुख, प्रतिकूल संयोग मे दुःख, अनुकूल परिस्थिति के वियोग से दुःख, और प्रतिकूल परिस्थिति के वियोग से सुख की अनुभूति होती है। इस प्रकार मनुष्य कामना कि पूर्ति-आपूर्ति में सुख और दुःख की अनुभूति करता है, और यह चक्र जीवन काल निरन्तर चलता रहता है। यह सुख-दुःख रूपी चक्र ही मनुष्य के जीवन काल का बन्धन है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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