भावार्थ:
अध्याय २ श्लोक ५१ में मनीषि (ज्ञानी, विद्वान्, विचारशील) पद से जीवन बन्धन से मुक्ति बताई है। इस के विपरीत इस श्लोक में मोह (मूढ़ता) को जीवन का दलदल रूपी बन्धन बताया है। मूढ़ता के कारण मनुष्य – शरीर से ममता, अहंता, प्रकृति पदार्थों – प्राणी में आसक्ति, होती है। इस मूढ़ता के कारण मनुष्य में प्रकृति पदार्थों के भोग का आकर्षण (राग) बना रहता है, और भोग के लिये ही मनुष्य के सब कार्य होते है।
तत्व ज्ञान एवं समता से जब बुद्धि में विवेक जाग्रत होता है और मूढ़ता का त्याग होता है तभी मनुष्य का भोग के प्रति राग का त्याग होता है।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
अनुकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिके प्राप्त होनेपर प्रसन्न होना और प्रतिकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिके प्राप्त होनेपर उद्विग्न होना, नये-नये नाशवान पदार्थों का संग्रह कर सुख लेना, व्यक्ति-परिवार में नये-नये सम्बन्ध जोड़ना – यह सब दलदल रूपी बन्धन मूढ़ता के कारण प्राप्त है।
इस श्लोक में “सुने हुए और सुने में आने वाले भोग” का तात्त्पर्य है कि भोग दो प्रकार के होते है। यहॉँ ‘सुने हुए भोग’ तो संसारिक भोग (धन, वैभव, जीवन के अन्य ऐश्वर्या आदि) है और सुनने में आने वाले भोग परलौकिक है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने परलौकिक भोगों को सुनने में आने वाले कहा है, तो इससे पता चलता है कि यह भोग काल्पनिक है।
सनातन धर्म पालन हेतु:
भोग और एश्र्वर्य में आसक्त मनुष्य की बुद्धि हर जाती है – (अध्याय २ श्लोक ४४)। अर्थात मनुष्य मूढ़ता को प्राप्त होता है। भोग में आसक्त मनुष्य के लिये मूढ़ता दलदल के समान है – (अध्याय २ श्लोक ५२)। कामना और भोग के लिये किये जाने वाले कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं, निम्न कोटि के कार्य है – (अध्याय २ श्लोक ४९)।
इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने कामना-भोग को पूर्ण रूप से निषेध बताया है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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