श्रीमद भगवद गीता : ५६

स्थिर बुद्धि मुनि का मन धीर (शान्त) रहता है।

 

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।२-५६।।

 

मुनि, – दुःखों की प्राप्ति होनेपर उद्विग्न नहीं होता, सुखोंकी प्राप्ति होनेपर उसके मनमें स्पृहा नहीं होती, और वह राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित होता है। ऐसे स्थिर बुद्धि मुनि का मन धीर (शान्त) रहता है। ||२-५६||

भावार्थ:

स्थिर बुद्धि दुःखों की प्राप्ति होनेपर उद्विग्न नहीं होता। मनुष्य को तीन कारणों से दुःख होता है।

आधिभौतिक: बाह्य वस्तुओं, परिस्थिति आदि से

आध्यात्मिक: शरीर में रोग आदि

आधिदैविक: प्रकृति के प्रकोप जैसे भूकम्प, तूफान आदि।

 

स्थिर बुद्धि में बाह्य वस्तुओं, परिस्थिति आदि, में महत्ता न होने के कारण और उनके प्रति कामना, भोग, आसक्ति, अहंता न होने के कारण, सधारण मनुष्य के समान, उसको आधिभौतिक से होने वाले दुःख होते ही नहीं। उसी प्रकार स्थिरबुद्धि में शरीर से ममता, और आलस्य न होने के कारण, कर्तव्य कर्म करते हुये समान्य मनुष्य को जो शारीरक कष्ट (आध्यात्मिक) से दुःख होते है, वह दुःख उसको होते ही नहीं।

एवं स्थिरबुद्धि जो भी कार्य करता है, वह दूसरों के हित के लिये करता है और कर्मों के फल में उसकी आसक्ति, ममता, कामना नहीं रहती। जिसके फलस्वरूप कार्य की सिद्धि-असिद्धि, फल की प्राप्ति होने पर मनमें स्वतः ही उद्वेग नहीं होता। कारण कि जब कार्य अपने लिये नहीं है और उसके फलमें आसक्ति, ममता, कामना नहीं है तो कार्य की सिद्धि-असिद्धि, फल की अनुकूलता-प्रतिकूलता का भाव ही नहीं बनता।

उसी प्रकार कर्तव्य-कर्म करते समय, कर्म करने में बाधा लग जाना, निन्दा-अपमान होना, – आदि प्रतिकूलताएँ आने पर भी उसके मनमें उद्वेग नहीं होता।

प्राकृतिक आपदा (आधिदैविक) अथवा शरीर में रोग (आध्यात्मिक) लगने पर स्थिरबुद्धि को दुःख की अनुभूति होती है। परन्तु स्थिरबुद्धि इस दुःख को अनुभव करके उद्विग्न अर्थात् व्याकुल नहीं होता। स्थिरबुद्धि इस प्रकार का दुःख प्राप्त होने पर उसके निवारण के लिये यथौचित कार्य तो करता है, परन्तु उसके मन में उस दुःख को लेकर किसी प्रकार की विषमता, व्याकुलता नहीं होती कि हाय यह दुःख क्यों प्राप्त हुआ, एवं यह शीघ्रता से कैसे समाप्त होगा आदि।

प्राप्त पदार्थ, परिस्थिति में अनुकूलता का भाव करके मन में यह विचार, भाव होना की अनुकूलता ऐसी ही बनी रहे; सदा मिलती रहे – स्पृहा है। स्पृहा को सत्ता देने पर वह पदार्थ, परिस्थिति का भोग है। पदार्थ, परिस्थिति का भोग करने से अन्तःकरण में उस पदार्थ, परिस्थिति के प्रति संस्कार रूप से राग स्थित हो जाता है।

स्थिरबुद्धि के मन में प्राप्त पदार्थ, परिस्थिति में अनुकूलता दिखने पर स्पृहा नहीं होती और वह विचार पूर्वक अनुकूलता में समता का भाव कर लेता है। प्राप्त पदार्थ, परिस्थिति में दिखने वाली अनुकूलता में समता का भाव करने से राग का त्याग हो जाता है और पूर्व संस्कार मिट जाता है। राग का त्याग होने से प्राप्त पदार्थ, परिस्थिति का जब वियोग होता है तो स्थिरबुद्धि के मन में भय और क्रोध रूपी विकार की उत्त्पति नहीं होती।

इस प्रकार स्थिरबुद्धि साधक का मन धीर (शान्त) रहता है।

अर्जुन का प्रश्न था कि स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है। इसके उत्तर में भगवान कहते है कि स्थितप्रज्ञ का मन शान्त होता है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

पदार्थों में राग होनेपर अगर दैविक शक्ति अथवा कोई सबल व्यक्ति उन पदार्थों का नाश करता है, उनसे सम्बन्ध-विच्छेद करता है, उनकी प्राप्तिमें विघ्न डालता है, तो मन में ‘भय’ होता है। और अगर नाश, सम्बन्ध-विच्छेद, विघ्न का कारण निर्बल प्राणी है तो मनमें ‘क्रोध’ होता है।

इस श्लोक में ‘मुनि’ पद आया है। जिसका अर्थ है बुद्धि से सत्तर्क रहना, विचारशील रहना। अध्याय २ श्लोक ५१ में इसी के लिये ‘मनीषी’ पद आया है। इस श्लोक में मुनि से तत्तपर्य यह है कि स्थिरबुद्धि साधक दुःख अथवा सुख की प्राप्ति होने पर सत्तर्कता पूर्वक, विचार करके उद्विग्नता एवं स्पृहा का त्याग करता है। तभी उसका मन शांति को प्राप्त होता है।

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