भावार्थ:
साधारण मनुष्य, संसार में जिस किसी भी पदार्थ, प्राणी, परिस्थिति, स्वयं के शरीर के साथ में आत्मीयता, स्नेह, ममता रखता है और ऐसा भाव रखता है की उसका सम्बन्ध इन सब से चिरकाल तक बना रहे, और न रहने पर व्याकुल होना – उस भाव को ‘अभिस्नेह’ कहते है।
परन्तु जिसकी बुद्धि स्थिर है, परमात्मतत्व में प्रतिष्ठित है, स्थापित है, वह अभिस्नेह से रहित होता है। उसको ज्ञान होता है कि पदार्थ, प्राणी, परिस्थिति नाशवान है, कभी एक समान नहीं रहने वाली है। उसका पदार्थ, प्राणी, परिस्थिति से कोई सम्बन्ध नहीं है।
अभिस्नेह से रहित स्थिर बुद्धि साधक को कोई भी शुभ-अशुभ (अनुकूल-प्रतिकूल) पदार्थ, प्राणी, परिस्थिति के प्राप्त होने पर, वह न तो अभिनन्दन (स्वागत) करता है न उपेक्षा करता है।
स्थिर बुद्धि साधक, शुभ-अशुभ (अनुकूल-प्रतिकूल) पदार्थ, प्राणी, परिस्थिति की प्राप्ति होने पर, यथोचित मनुष्य धर्म का पालन करता है।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
शुभ (अनुकूल) पदार्थ, प्राणी, परिस्थिति को लेकर मनमें जो प्रसन्नता आती है और वाणीसे भी जो प्रसन्नता प्रकट की जाती है तथा बाहरसे भी उत्सव मनाया जाता है – यह उस पदार्थ, प्राणी, परिस्थिति का अभिनन्दन करना है।
अशुभ (प्रतिकूल) पदार्थ, प्राणी, परिस्थिति को लेकर मनमें जो खिन्नता, क्षुब्धता आती है, और उसकी उपेक्षा होती है – यह उस पदार्थ, प्राणी, परिस्थिति के प्रति द्वेष दृष्टि है।
किसी की बुद्धि कितनी ही तेज क्यों न हो और वह अपनी बुद्धिसे परमात्माके विषयमें कितना ही विचार क्यों न करता हो, पर वह परमात्माको अपनी बुद्धिके अन्तर्गत नहीं ला सकता। कारण कि बुद्धि सिमित है और परमात्मा असीम-अनन्त हैं। परन्तु उस असीम परमात्मामें जब बुद्धि लीन हो जाती है, तब उस सिमित बुद्धि में परमात्माके सिवाय दूसरी कोई सत्त्ता ही नहीं रहती – यही बुद्धि का परमात्मामें प्रतिष्ठित होना है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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