श्रीमद भगवद गीता : ५९

स्थिर बुद्धि – समता में केंद्रित बुद्धि विषयों के रस से निवृत है -हट पूर्वक विषयों का त्याग वाला नहीं।

 

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।२-५९।।

 

विषयों को ग्रहण न करने वाले की इन्द्रियाँ तो विषयोंसे हट जाती हैं परन्तु विषय में राग-द्वेष रूपी रस (संस्कार) नष्ट नहीं होता। परन्तु स्थिर बुद्धि की बुद्धि समता में केंद्रित होने के कारण उसका विषय में स्थित रस से भी निवृत्ति हो जाती है। ||२-५९||

भावार्थ:

प्राय मनुष्य इन्द्रियों को उनके विषय से हटा लेने को ही विषयों में स्थित राग का त्याग मान लेते है। जैसे आँख, कान बन्द करके एकान्त में बैठ जाना। कोई कार्य न करना। ऐसा करने से उस समय तो ऐसा प्रतीत होता है कि, विषयों से वैराग्य हो गया है। परन्तु उन विषयों के प्रति मन में जो राग-द्वेष संस्कार (रस) रूप में स्थित है, वह स्थित ही रहता है।

इन्द्रियों को विषय से हटा लेने से, राग-द्वेष को व्यक्त करने का कोई कारण नहीं मिलता और मनुष्य को लगता है की उसका विषय में जो राग-द्वेष है उसका त्याग हो गया है। परन्तु जैसे ही मनुष्य पुनः विषय के संपर्क में आता है, वह राग-द्वेष व्यक्त हो जाता है, और मनुष्य उसमें अनुकूलता-प्रतिकूलता कर लेता है।

इस के विपरीत स्थितप्रज्ञ की बुद्धि समता में केंद्रित होने के कारण, वह इन्द्रियों के विषय को इन्द्रियों से ग्रहण तो करता है, परन्तु विषय में अनुकूलता-प्रतिकूलता का त्याग विचारपूर्वक करता है। विषय का महत्व नहीं रखता, उसके प्रति उदासीन रहता है। अतः अन्तःकरण में विषय के प्रति निर्लिप्त रहती है।

अन्तःकरण में अनुकूलता-प्रतिकूलता का त्याग होने से अन्तःकरण में उस विषय का नया राग-द्वेष रूपी संस्कार नहीं बनता और बना हुआ राग-द्वेष नष्ट हो जाता है। और इस प्रकार पूर्व में जो राग-द्वेष रूपी रस (संस्कार) था उससे भी निवृत्ति हो जाती है। संस्कार नष्ट हो जाता है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

भोगोंकी सत्ता और महत्ता माननेसे अन्तःकरण में भोगों के प्रति एक सूक्षम खिंचाव, प्रियता, मिठास रहती है। इसके कारण मनुष्य अप्राप्त विषयों का चिन्तन करता है और अप्राप्त विषय का भोग, कल्पना में करता है। इस प्रकार मन में विषयों का चिन्तन और भोग रूप से उस विषय का कल्पना में सुख लेना भोग रस है। जैसे एक रोगी मनुष्य स्वादिष्ट भोजन का सेवन करने में असमर्थ्य होने के कारण कल्पना करता कि जब मैं ठीक हो जाऊँगा तो स्वादिष्ट भोजन का सेवन करूँगा और वह स्वादिष्ट भोजन का रस (आंनद) कल्पना में लेता है। अतः विषयों का चिन्तन करने से भोग रस बना रहता है और वह भी संस्कार रूप से अन्तःकरण में अंकित होता रहता है।

इस रस (आंनद) का त्याग भोग का त्याग करने से होता है। अतः स्थितप्रज्ञ, प्राप्त पदार्थ को संसार की सेवा में लगा देता है, और उसका भोग नहीं करता।

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