श्रीमद भगवद गीता : ६०

स्थिर बुद्धि – अन्तःकरण में रस रहने से साधक विषय में अनुकूलता-प्रतिकूलता कर लेता है।

 

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।२-६०।।

 

हे कौन्तेय! अन्तःकरण में रस रहने से, समता प्राप्ति की साधना में रत विवेकशील पुरुष की साधना भी भंग हो जाती है, जब मन को इन्द्रियों के विषय हर लेते है और साधक विषय में अनुकूलता-प्रतिकूलता कर लेता है। ||२-६०||

भावार्थ:

जो तत्व ज्ञान का ज्ञाता हो, जिसके सभी कार्य समाज कल्याण के लिये होते हो, जो योग साधना में लगा हो, और जो अन्तःकरण में समता स्थित करने का अभ्यास करता हो, उसके अभ्यास में भी बाधा आ जाती है और वह इन्द्रियों के विषय में अनुकूलता-प्रतिकूलता कर लेता है। इस का कारण है – इन्द्रियों के विषय में राग-द्वेष रूपी रस (संस्कार) का होना, भोग भोगने से अन्तःकरण में भोग रस होना। इन्द्रियों के विषय के सम्मुख होते ही यह रस, मन को बल पूर्वक हर लेती है और मन विषय में अनुकूलता-प्रतिकूलता कर लेता है।

इसका कारण यह है कि, जब-जब मनुष्य, इन्द्रियों को विषय से सम्बन्ध मान कर सुख-दुःख भोगता है, तब-तब भोगे गये सुख-दुःख से न्य संस्कार बनते है और पुराने बने रहते हैं। यह संस्कार मन-बुद्धि में बलपूर्वक विषय के प्रति अनुकूलता-प्रतिकूलता कर देते है।

श्लोक का परिपेक्ष्य:

इस श्लोक से यह भी तत्पर्य निकलता है कि, जो साधक हट पूर्वक विषयों का त्याग करते हैं, तप करते है, या आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त करके, वेदों को पढ़के अपने को विद्वान् समझते है, उनका जब इन्द्रियों के विषयों से सामना होता है, तो वह विचलित हो जाते है।

ऐसे अनेक ऋषियोंके उदाहरण आते हैं, जो विषयोंके सामने आनेपर विचलित हो गये। कारण की कुछ वर्षों तक तो वे संयम के प्रति सजग रहते हैं और संयम रखने में सफलता प्राप्त होती हुई लगती है। जिसके फलस्वरूप उन्हें अपने संयम शक्ति पर विश्वास होने लगता है। तत्पश्चात् स्वयं पर अत्यधिक विश्वास के कारण सजगता कम हो जाती है और तब स्वाभाविक ही अन्तःकरण में स्थित रस बलपूर्वक मन को विषयों में खींच ले जाती हैं और साधक की शान्ति को नष्ट कर देती हैं।

अतः हट पूर्वक विषयों का त्याग करके, या संसार का त्याग करके, या आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त करके समता की प्राप्ति नहीं की जा सकती।

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