श्रीमद भगवद गीता : ६१

ध्यान योग – विषय में स्थित राग-द्वेष की निवृति परमात्मा के चिन्तन से ही संभव।

 

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।२-६१।।

 

सभी इन्द्रियों के विषय में स्थित राग-द्वेष की निवृति के लिये साधक चित को मेरा परायण (ध्यान योग) करके बैठे। क्योंकि जिसका अन्तःकरण संयमित है, राग-द्वेष से रहित है, उसकी विवेकजनित बुद्धि प्रतिष्ठित है। ||२-६१||

भावार्थ:

भोगोंकी सत्ता और महत्ता माननेसे अन्तःकरण में भोगों के प्रति एक सूक्षम खिंचाव, प्रियता, मिठास रहती है। इसके कारण मनुष्य अप्राप्त विषयों का चिन्तन करता है और अप्राप्त विषय का भोग, कल्पना में करता है। इस प्रकार मन में विषयों का चिन्तन और भोग रूप से उस विषय का कल्पना में सुख लेना भोग रस है। जैसे एक रोगी मनुष्य स्वादिष्ट भोजन का सेवन करने में असमर्थ्य होने के कारण कल्पना करता कि जब मैं ठीक हो जाऊँगा तो स्वादिष्ट भोजन का सेवन करूँगा और वह स्वादिष्ट भोजन का रस (आंनद) कल्पना में लेता है। अतः विषयों का चिन्तन करने से भोग रस बना रहता है और वह भी संस्कार रूप से अन्तःकरण में अंकित होता रहता है।

मन में विषयों का चिन्तन करने से और कल्पना में उनका भोग लेने से, अन्तःकरण में विषयों का भोग रस बना रहता है और अन्तःकरण संयमित (समता में स्थित) नहीं होता।

अतः अन्तःकरण को संयमित करने के लिये भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि साधक मन से विषयों के चिन्तन का त्याग करे, उनके प्रति उदासीन हो जाय, बुद्धि में कोई महत्व न रखे। मन को विषयों के चिन्तन से हटाने के लिये साधक केवल परमात्मा का ही चिन्तन करे। विषयों के प्रति उदासीन होने से, उनका चिन्तन न करने से भोग का त्याग होता है, जिससे नय संस्कार नहीं बनते और पुराने नष्ट हो जाते है।

जिसका अन्तःकरण संयमित है, राग-द्वेष से रहित है, वह ही विवेकशील है और उसकी बुद्धि परमात्मतत्व में प्रतिष्ठित रहती है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

जब साधक के पास कर्तव्य रूपी एवं जीवन निर्वाह रूपी कोई कार्य न हो, तब उस एकान्त काल में साधक केवल परमात्मा का ही चिन्तन करे। परमात्मा का चिन्तन करने की जो प्रक्रिया है, उसको ध्यान योग कहते है। इस ध्यान योग प्रक्रिया का वर्णन अध्याय ६ श्लोक १० से अध्याय ६ श्लोक २० में हुआ है।

सनातन धर्म पालन हेतु:

इस रस (आंनद) का त्याग, भोग का त्याग करने से होता है। अतः स्थितप्रज्ञ, प्राप्त पदार्थ को संसार की सेवा में लगा देता है, और उसका भोग नहीं करता।

व्यवहार काल में जब साधक इन्द्रयों से विषय को ग्रहण करता है, तब विचार पूर्वक उत्त्पन्न राग-द्वेष के के प्रति उदासीन हो जाय और उन विषय में अनुकूलता-प्रतिकूलता का त्याग करे।(अध्याय २ श्लोक ५९)

एकान्त काल में साधक केवल परमात्मा का ही चिन्तन करे और विषयों के चिन्तन का त्याग करे। (अध्याय २ श्लोक ६१)

इन्द्रयों से इन्द्रियों के विषय का त्याग करने की कभी आवश्यकता नहीं।

इस श्लोक से स्पष्ट हो जाता है की निराहारी का बलपूर्वक किया हुआ इन्द्रिय निग्रह क्षणिक है जिससे परमान्द प्राप्ति की कोई आशा नहीं करनी चाहिये।

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