श्रीमद भगवद गीता : ६४-६५

योग – आत्मसंयमी, विधेयात्मा कर्मयोगी की बुद्धिं परमात्मा स्थिर है।

 

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।२-६४।।

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।२-६५।।

 

परन्तु आत्मसंयमी, विधेयात्मा कर्मयोगी साधक रागद्वेष से रहित होता है और वह इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता हुआ भी अन्तःकरण की निर्मलता को प्राप्त हो जाता है। अन्तःकरण की निर्मलता को प्राप्त होनेपर साधक के सम्पूर्ण दुःखों का नाश हो जाता है और साधक की बुद्धि आकाश की भाँति परमात्मा में  स्थिर हो जाती है। ||२-६४|| ||२-६५||

भावार्थ:

जो साधक केवल परमात्मा का ही चिन्तन करता है, जिसका अन्तःकरण संयमित है, वह राग-द्वेष से रहित हो जाता है। और तब वह इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण करता हुआ और संसार के सभी कार्य करता हुआ भी अन्तःकरण की स्वच्छता-निर्मलता को प्राप्त होता है। अर्थात उसके अन्तःकरण  किसी भी प्रकार की विषमता अथवा विकार नहीं रहता।

स्वच्छ-निर्मल अन्तःकरण से युक्त साधक के सम्पूर्ण दुःखों का नाश हो जाता है। अर्थात् कोई भी दुःख (तीन प्रकार के दुःख) उसको प्रभावित नहीं करते। कारण की जितने भी दुःख हैं, वे सब-के-सब शरीर-संसार से सम्बन्ध मान कर सुख की कामना से होते हैं। अन्तःकरण में निर्मलता रहने से सुखकी कामना नहीं रहती, जिससे दुःखोंका अभाव हो जाता है।

योग साधना काल में तो साधक को मन में परमात्मा का चिन्तन करना पड़ता है, परन्तु जब अन्तःकरण में निर्मलता आ जाती है, तब अन्तःकरण आकाश के समान परमात्मा में स्थित हो जाता है। उसके मन में परमात्मा से अन्यथा, किसी अन्य विषय का चिन्तन होता ही नहीं।

सनातन धर्म पालन हेतु:

परमात्मा प्राप्ति के लिये, संसार के त्याग की आवश्यकता नहीं। आवश्यकता है – संसार से सम्बन्ध का त्याग, राग-द्वेष का त्याग, संसारिक विषयों के चिन्तन का त्याग।

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