श्रीमद भगवद गीता : ६६

जो बुद्धि युक्त नहीं, वह कर्तव्य का त्याग कर शान्तिरहित, दुःखी है।

 

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।

न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।२-६६।।

 

जो बुद्धि युक्त नहीं है, ऐसे मनुष्यकी व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं रहती और उसमें कर्तव्य परायणता की भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होने से उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है? ||२-६६||

भावार्थ:

जो समता से युक्त नहीं है। जिसकी बुद्धि में समता प्राप्ति के लिये निश्चित बुद्धि नहीं है। अर्थात जिसमें अनेक कामनायेँ है। जिसके कार्य कर्तव्य पालन के लिये नहीं होते। ऐसे मनुष्य को शान्ति कैसे प्राप्त होगी? नहीं प्राप्त हो सकती। और जिस का अन्तःकरण शान्त नहीं है, निर्मल नहीं है, उसको परमानन्द की प्राप्ति कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

योग में अन्तःकरण को संयम करना मुख्य होता है। विवेक पूर्वक विचार करके अन्तःकरण को संयम (अनुकूलता-प्रतिकूलता का त्याग) किये बिना कामना नष्ट नहीं होती। कामना के नष्ट हुए बिना मनुष्य की ‘मेरेको केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है – ऐसी एक निश्चयवाली बुद्धि नहीं होती। कारण की वह उत्तपत्ति-विनाशशील संसारिक भोगों और संग्रहमें ही लगा रहता है। वह कभी सुख-आराम चाहता है, कभी धन, तो कभी सम्मान चाहता है। इस प्रकार उसके भीतर अनेक तरहकी कामनाएँ होती रहती है।

कामनाओं में रत मनुष्य सुख-दुःख के चक्र रूपी बन्धन में बंधा रहने के कारण शांति कैसे पा सकता है। उसमें ‘मेरेको तो केवल अपने कर्तव्यों का पालन करना है और कामना, आसक्ति आदि का त्याग करना है’ – ऐसा विवेक भी नहीं रहता।

सनातन धर्म पालन हेतु:

अतः मनुष्य को सुख-दुःख के चक्र रूपी बन्धन से मुक्त होने के लिये ‘मेरेको केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है’ – ऐसी एक निश्चयवाली बुद्धि करके, केवल कर्तव्य-कर्म ही करे। अन्तःकरण को संयम करके संसार से प्राप्त पदार्थो का भोग न करते हुए संसार की सेवा में पुनः लगा देना चाहिये। अपने लिये केवल निर्वाह-मात्र होना चाहिये।

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