भावार्थ:
जो समता से युक्त नहीं है। जिसकी बुद्धि में समता प्राप्ति के लिये निश्चित बुद्धि नहीं है। अर्थात जिसमें अनेक कामनायेँ है। जिसके कार्य कर्तव्य पालन के लिये नहीं होते। ऐसे मनुष्य को शान्ति कैसे प्राप्त होगी? नहीं प्राप्त हो सकती। और जिस का अन्तःकरण शान्त नहीं है, निर्मल नहीं है, उसको परमानन्द की प्राप्ति कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
योग में अन्तःकरण को संयम करना मुख्य होता है। विवेक पूर्वक विचार करके अन्तःकरण को संयम (अनुकूलता-प्रतिकूलता का त्याग) किये बिना कामना नष्ट नहीं होती। कामना के नष्ट हुए बिना मनुष्य की ‘मेरेको केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है – ऐसी एक निश्चयवाली बुद्धि नहीं होती। कारण की वह उत्तपत्ति-विनाशशील संसारिक भोगों और संग्रहमें ही लगा रहता है। वह कभी सुख-आराम चाहता है, कभी धन, तो कभी सम्मान चाहता है। इस प्रकार उसके भीतर अनेक तरहकी कामनाएँ होती रहती है।
कामनाओं में रत मनुष्य सुख-दुःख के चक्र रूपी बन्धन में बंधा रहने के कारण शांति कैसे पा सकता है। उसमें ‘मेरेको तो केवल अपने कर्तव्यों का पालन करना है और कामना, आसक्ति आदि का त्याग करना है’ – ऐसा विवेक भी नहीं रहता।
सनातन धर्म पालन हेतु:
अतः मनुष्य को सुख-दुःख के चक्र रूपी बन्धन से मुक्त होने के लिये ‘मेरेको केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है’ – ऐसी एक निश्चयवाली बुद्धि करके, केवल कर्तव्य-कर्म ही करे। अन्तःकरण को संयम करके संसार से प्राप्त पदार्थो का भोग न करते हुए संसार की सेवा में पुनः लगा देना चाहिये। अपने लिये केवल निर्वाह-मात्र होना चाहिये।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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