श्रीमद भगवद गीता : ६७

बुद्धियोग- राग इन्द्रियों के विषय में विचरने वाले की बुद्धि हर लेता है।

 

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।

तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।२-६७।।

 

जैसे जल में नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही अपने-अपने विषयोंमें विचरनेवाली इन्द्रियों में से, जो एक ही इन्द्रिय विषय, मनको अपना अनुगामी बना लेती है, तब वह राग साधक की विवेकज्ञानसे उत्पन्न हुई बुद्धिको हर लेता है अर्थात् नष्ट कर देता है। ||२-६७||

 

भावार्थ:

मनुष्य जब संसार में व्यवहार करता है, तब इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को ग्रहण करती ही है। उस समय, मनुष्य के अन्तःकरण में जिस किसी विषय का राग (संस्कार) रहता है, मन उसमें स्थित हो कर अनुकूलता-प्रतिकूलता कर लेता है। और तब आरम्भ होती है अध्याय २ श्लोक ६२ में व्यक्त की गयी भोग-कामना की प्रक्रिया।

जब मन में विषयका महत्त्व बैठ जाता है, तब वह अकेला विषय ही मनुष्य की बुद्धिको हर लेता है। अर्थात् मनुष्य में कर्तव्य-परायणता न रहकर भोगबुद्धि पैदा हो जाती है। भोगबुद्धि होने से मनुष्य में ‘मुझे समता की ही प्राप्ति करनी है’, यह व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं रहती।

इस विकृति की गंभीरता के लिये जल में नाव की उपमा का वर्णन किया है।

जिस प्रकार जल में नाव को वायु हर लेती है, उसी प्रकार अन्तःकरण इन्द्रियों के विषयों में विचरता हुआ (संसारिक सेवा रूप कार्य करती हुई) अगर किसी एक विषय में भी प्रियता कर लेता है, तो वह प्रियता तुरन्त मन को हर लेती है। अतः जिस समय बुद्धि की सतर्कता में शीतलता आई, वहीं इन्द्रियों ने अपना प्रभाव डाला।

अतः मनुष्य का अपना उद्धेश्य दृढ़ होना चाहिये, कि मुझे तो केवल समता में स्थित रहना है, चाहे जो हो जाय, और विषयों के प्रति सतर्कता भी बनी रहनी चाहिये।

इस प्रकार इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण आग्रह करते है की केवल बुद्धिमान होना पर्याप्त नहीं है, तत्व ज्ञान होना पर्याप्त नहीं है। विवेक की जाग्रति के साथ सतर्कता रखनी भी बहुत आवयशक है।

जब सारे कार्य प्रकृति-समाज हित के लिये होंगे और अपने लिये केवल निर्वह मात्र के लिये होंगे. तब विषयों के प्रति सतर्कता रखने में सहायता होती है।

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