श्रीमद भगवद गीता : ६८

प्रज्ञा शरीरक एवं मानसिक कार्य करते हुए राग से रहित है।

 

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।२-६८।। 

 

इस प्रकार हे महाबाहो शरीरक एवं मानसिक कार्य करते हुए जिस साधक का अन्तःकरण इन्द्रियों के अपने-अपने विषय के राग से रहित है, वह प्रज्ञा (विवेकजनित बुद्धि) प्रतिष्ठित है। ||२-६८||

भावार्थ:

इस प्रकार जब किसी भी अवस्था में – संसारके साथ व्यवहार करते हुए अथवा एकान्त में चिन्तन करते हुए, साधक के अन्तःकरण में विषयों के प्रति लेशमात्र भी राग, आसक्ति, खिंचाव नहीं रहता, वह भोगों में प्रवृत्त नहीं होता तब उस विवेकशील साधक की बुद्धि परमात्मा में स्थित है।

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