श्रीमद भगवद गीता : ६९

योगी भोग का त्याग करता है और भोगी उसमे रत रहता है।

 

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।२-६९।।

 

अन्तःकरण की शान्ति के अनुभव से जो मनुष्य अज्ञान है, उसके लिये वह अज्ञान रात्री के समान है। अतः सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मासे विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता (योग में प्रवृत्त रहता) है। और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रहमें लगे रहते हैं), वह तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें रात है। ||२-६९||

भावार्थ:

यहाँ रात का तात्पर्य सूर्य से होने वाले दिन-रात से नहीं है। यहाँ रात का अर्थ परमात्मासे विमुखता है। जिनका मन सयंमित नहीं हैं, जो भोगोंमें आसक्त हैं, उनका विवेक जाग्रत नहीं है। अतः वे सब अन्तःकरण की शान्ति के सन्दर्भ में निंद्रा में हैं।

ऐसे मनुष्यों की संज्ञा भगवान ने (सर्वभूतनाम से) पशु-पक्षी से की है। जैसे पशु-पक्षी आदि दिनभर खाने-पीने में ही लगे रहते हैं, ऐसे ही आसक्त मनुष्य दिन-रात खाने-पीने में, आराममें, भोगों और संग्रहमें, धन कामनेमें ही लगे रहते है। पशु-पक्षी में तो विवेक शक्ति नहीं होती, परन्तु फिर भी वे जितने में पेट भर जाय, उतना ही खाता हैं। इस के विपरीत मनुष्य (भगवान की कृपा से) में विवेक शक्ति होते हुए भी, वह भोग और संग्रह में लगा रहता है। मनुष्य अपने विवेक का उपयोग अपने और समाज कल्याण के लिये नहीं करता।

भोग और संग्रह की वृति के कारण मनुष्य वस्तु का संग्रह करता है – फिर चाहे आज उसका प्रयोग हो या न हो, भविष्य में हो या न हो। भोग-संग्रह में लगा मनुष्य संसारिक कार्यों में बड़े सावधान और निपुण होता हैं। वह एक-एक पैसे का हिसाब रखता हैं, – इतना पैसा तो आगया इतना लेना है। यह भोग की वस्तु प्राप्त कर ली, और अब यह करनी है। प्राप्त वस्तु कोई दूसरा ना लेले, इस प्रकार की सतर्कता रहती है। और यही भोगी मनुष्य की जागृत अवस्था है।

इस के विपरीत संसार और अन्तःकरण की निर्मलता को अनुभव करने वाला, मननशील, संयमी साधक की दृष्टि में यह भोग-संग्रह रात के समान है। अर्थात कुछ करने योग्य नहीं है।

अन्तःकरण की निर्मलता से जो अनभिज्ञ है, कर्तव्यों का पालन जिसकी पारमार्थिकता नहीं है, समता प्राप्ति जिसका उद्देश्य नहीं है, विवेक जिसका जागृत नहीं है, ऐसे भोग में लिप्त मनुष्य के लिये जो रात है (कुछ करने योग्य नहीं है), वह संयमी साधक के लिये जागृत अवस्था है। अर्थात उसके सब कार्य कर्तव्य और समता प्राप्ति के उद्देश्य से ही होते है।

सनातन धर्म पालन हेतु:

कर्तव्यों को करना ही मनुष्य का धर्म है- ज्ञान है। केवल स्वयं के लिये करना, भोगों में लिप्त रहना अधर्म है- अज्ञान है।

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