भावार्थ:
जब साधक मन में उत्तपन्न हो रही कामनाओं का विचार पूर्वक त्याग करता जाता है, और जब प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति के संयोग-वियोग से साधक के अन्तःकरण में किसी प्रकार का विकार, विषमता की उत्त्पति नहीं होती, जब साधक, शरीर की स्थिति को लेकर सन्तुष्ट रहता है, तब वह स्थिरबुद्धि कहा जाता है।
कामना होने पर कामना पूर्ति के लिये मनुष्य जो कार्य करता है, उसका त्याग करने पर, वह कामना का त्याग समझ लेता है। कामना की पूर्ति न होने पर सन्तोष तो कर लेता है, परन्तु मन में उस कामना का बना अंश रहता है। अतः ‘पूर्ण रूप से कामना का त्याग’ का अर्थ है कि, साधक के मन में सूक्ष्म रूप से भी जो कामना का अंश शेष है, उसका भी त्याग करना।
ऐसा नहीं की साधक के मन में कामना उत्तपन्न नहीं होती, परन्तु वह विचारशील साधक सत्तर्कता से उस उत्तपन्न कामना का अन्तःकरण से त्याग कर देता है।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
यहाँ शरीर की स्थिति को लेकर सन्तुष्ट रहने का तत्पर्य ममता, अहंता, आसक्ति रहित होना है। मनुष्य की शरीर में ममता, अहंता, आसक्ति होने के कारण, शरीर के सुख को लेकर, अनेक विकार अन्तःकरण में उत्त्पन्न होते है। अतः उनका त्याग स्थिरबुद्धि के लक्षण है।
मनुष्य का प्राय विचार होता है कि मनुष्य कार्य, कामना की प्रेणना से ही करता है। कामना न हो तो मनुष्य कुछ भी कार्य नहीं करेगा। इस के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय २ श्लोक ४१ में कहते है कि “हे अर्जुन! तुम केवल समता प्राप्ति की कामना करो”। क्योकि समता से ही परमानन्द की प्राप्ति है, परमात्मा की प्राप्ति है। इसलिये समता में स्थित होने लिये जो भी योग साधना रूपी कार्य वेदों में कहे गये है, वह सब मनुष्य को करने चाहिये। अध्याय ३ श्लोक ५ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, मनुष्य किसी भी अवस्था में, क्षणमात्र के लिये भी कार्य किये बिना नहीं रह सकता। अतः विचार केवल इस बात का है कि, कार्य, कामना पूर्ति के लिये हो अथवा कर्तव्यों के लिये?
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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